कश्मीर घाटी में सबसे पहले मौत के घाट उतार दिया जाता है सच

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हिंसा-हमले-हत्याएं-हाहाकार के पैरोकारों का कुंठित महिमामंडन रोकें !

‘सच अमर है। किन्तु झूठा प्रचार अमरबेल है।’
                                                                    - अज्ञात

कोई "पोस्टर बॉय' नहीं था। हमने बना दिया। चार-छह खाली और ख़ुराफाती लड़कों को कोई भी भड़का सकता है। बहुत हुनर नहीं चाहिए। ये जो किसी बुरहान मुज़फ्फर वानी को महिमामंडित करने की अंधी होड़ मची हुई है - कुंठित कर देती है। क्रोधित कर देती है। कुछ न कर पाने की छटपटाहट पैदा कर देती है।
वो हजारों जुटाते हैं। जी, हां -कोई "फॉलोइंग' नहीं है/न थी। भीड़ का क्या है? कोई भी इकट्ठी कर सकता है। इकट्ठी की जाती है। और वर्षों से ऐसा हो रहा है। अलगाववादी, भड़काने वाली अपील करते जाते हैं। विरोधी पार्टी उसमें और आग लगाती जाती है।
कश्मीर -हमारा कश्मीर- इतने जघन्य अापराधिक षड्यंत्रों का शिकार बनता रहता है कि वहां सच सबसे पहले मौत के घाट उतार दिया जाता है। एक धोखा - जो मकबूल बट के समय से दिया जाता रहा -वो कभी पकड़ में नहीं आता। न ही उसका आरम्भ कहां से होता है- यह समझ में आता है। धोखा, रक्तपात लेकर आता है। 1990, 2008 और 2010 । थानों, सुरक्षाबलों की चौकियों को लूटने-जलाने के उपद्रव।

हमारी संसद पर हमला करने वाला देशद्रोही था एक मोहम्मद अफ़जल नाम का आतंकी। किन्तु उस फांसी के दोषी को कश्मीरी नौजवानों का "आदर्श' बताने की भी होड़ मची। किन्तु फरेब। होते ही ऐसे हैं। कि सभी को बरबस अपनी ओर खींच लेते हैं। ‘गुरु’ की उपाधि तो ऐसे लगा दी मानों आतंक का गुरुतर दायित्व निभा रहा हो।और नायक-महानायक बनाने का कोई उद्देश्य न होने के बावज़ूद - कुछ शब्दावली ही ऐसी गढ़ ली जाती है।

कश्मीर का कोई भी गुण्डा, चोर, गिरहकट अपराधी सेना की फर्जी वर्दी में अपनी फोटो क्या खिंचवा ले -"हीरो' कह दिया जाता है। कोई भी हिंसक तत्व- थोड़ी बहुत सोशल मीडिया की करतूतें समझ कर, उस पर कुछ अजीब हरकतें क्या कर दे "हाई टेक-सेवी' करार दिया जाता है। कुछ सौ-पचास ऐसे युवक - जिन्होंने पढ़ाई के लिए घर से भेजने वाले अपने माता-पिता को धोखा दिया हो -वे यदि हिंसक तत्वों के वीडियो देख-देखकर समय काटने और मनोरंजन करने का माध्यम क्या बना लें- तो उन्हें "फॉलोअर्स' बताया जाता है। और भड़काऊ, भारत-विरोधी विष-वमन को यू-ट्यूब, फेसबुक, टि्वटर पर प्रचलित करने वाले देशद्रोहियों को "पॉपुलर' घोषित करने लगते हैं।
फिर हर ग़र्मी में जानलेवा पथराव करने वालोें को हम "ग़रीब' कहकर पुचकारने लगते हैं। सुरक्षा बलों को चूंकि स्पष्ट आदेश है - इसलिए वे बस "धैर्य' ही रखे रहते हैं। उनकी गाड़ियों को झेलम में धकेल कर पाकिस्तानी हा-हू नारे, पाकिस्तानी झण्डे और पाकिस्तान से पाई न जाने कैसी-कैसी अनैतिक सहायता को गगनचुम्बी सलामी देने वालों को हम "गुमराह' करार देते हैं।और स्कूलों को, चौकियों को आग के हवाले करने वालों को हम "बेरोजगार', "बेचारे बेरोजगार' कह कर सद्भावना व्यक्त करने की दौड़ में तेज़ दौड़ते नज़र आते हैं।
रोकना होगा ऐसा भ्रष्ट तमाशा। बहुत हो चुका।

कहा जाता है : "यह कोई कानून-व्यवस्था का मामला नहीं है। यह तो राजनीतिक मुद्दा है।'
निश्चित। राजनीतिक मुद्दा ही है।
किन्तु दो मुद्दों को एक कर, दिखाने का षड्यंत्र क्यों नहीं देख पा रहे हैं हम? कश्मीर समस्या, राजनीतिक है।
किन्तु लोगों को - निर्दोष, असहाय, असंबद्ध लोगों को - पथराव कर लहू-लुहान कर देना कौन-सी राजनीतिक समस्या है?
जिस "राजनीतिक समस्या' में सड़कें लाशों से पट पड़ें - वो तो विशुद्ध अापराधिक समस्या ही है। किन्तु वही, नक्सल वाली ढुलमुल नीति। मैं तो कठोर और कड़वे शब्दों में कहूंगा "कायराना' नीति। कि हर हमले, हर हिंसा और हर हत्या के बाद चुपचाप कह दो "कि यह एक राजनीतिक, सामाजिक' समस्या है। बलपूर्वक इसका हल नहीं निकलेगा। लोगों का दिल जीतना पड़ेगा। "स्थानीय नागरिकों को साथ लेकर चलना पड़ेगा।'
साथ ही तो चल रहे हैं। और चलते रहेंगे। चलते-चलते पैर फट गए। कई बार हड़ताल में तो पैर तोड़ ही दिए गए। फिर जेकेएलएफ ने हमसे कहीं अधिक लोगों का दिल जीत लिया- ऐसा प्रचार कानों को फोड़ गया। फिर, हिजबुल आ गया। लश्कर आ गया। अलगाववादी, आग लगाते पाए गए। न जाने कितने नामों से आते चले गए। और हम, बस पत्थर खाते रहे। लाशें बिछती देखते रहे। इस "राजनीतिक' समस्या काे दबकर, चुप रहकर, सहकर समूचा कश्मीर धधकता देखता रहता है.

कौन था बुरहान? बॉलीवुड जैसी कहानी गढ़ दी है। कि 15 की उम्र में सेना के जवानों ने उसके भाई को उठा लिया। तो उसने बंदूक उठा ली।
करोड़ों नौजवान हैं हमारे देश में। जुल्म के शिकार। बेरोजगार। वे तो हिंसा पर नहीं उतरते। और यही पैमाना होता तो कश्मीरी पंडित तो सिर्फ गोलियां ही चलाते रहते। किन्तु सारे नौजवान ऐसे नहीं होते। संघर्षरत रहते हैं। कश्मीरी युवा संघर्ष क्यों नहीं करते?
इसी साल आईआईटी और कई ऑल इंडिया परीक्षाओं में अनेक कश्मीरी बच्चे टॉपर बने हैं। वे कभी पत्थर/ग्रेनेड नहीं फेंकते। और बंदूक उठाने वालों के घरवाले? क्यों नहीं रोकते उन्हें?
उस हिंस्त्र तत्व को - जिसने अपने कस्बे त्राल में राष्ट्रीय राइफल्स के 4 जवानों की निर्मम हत्या की थी!
उसका आखिरी ट्वीट, ढाका के आतंकी हमलावरों की "प्रेरणा' के रूप में प्रचलित टीवी चैनल पर मजहब के कारोबारी किसी जाकिर नाइक की प्रशंसा में था। यानी हिंसा-हमले-हत्या-हाहाकार का पैरोकार था 22 वर्षीय यह अमानुष। ज़ाकिर नाइक का समर्थक। जिसके बारे में विश्लेषक सबा नकवी ने बहुत अच्छा बताया है कि वह अपने टीवी पर क्या कहता है? जश्न जो गैर-मुस्लिम हों, उसमें शरीक होंगे तो जहन्नुम में जाएंगे। दरगाह पर इबादत तो जहन्नुम। शिया - तो जहन्नुम। म्यूज़िक - तो हैल। ऐसे ज़ाकिर का चेला था वो बुरहान। और उसके सोशल मीडिया पर जुड़े लोगों में हुर्रियत के अली शाह गिलानी भी थे और उमर अब्दुल्ला भी। इसीलिए तो उमर ने तत्काल ट्वीट किया कि ‘उनके समय तो कोई अपराध नहीं किया था बुरहान ने। बाद का पता नहीं।’ पता क्यों नहीं? ग़ुलाम बना रखा है घाटी को अब्दुल्लाओं की तीन पीढ़ियों ने। अब सत्ता से बाहर, भड़का रहे हैं।
और जैसा बुरहान, ज़ाकिर से जुड़ा था, वैसे ही वह पाकिस्तानी आईएसआई से।

हिजबुल है क्या? आईएसआई सै पैसे लेकर भारत में खून-खराबा करने वाला एक गिरोह। बुरहान ने कश्मीर में पहली बार इस्लामिक स्टेट (आईएस) की तर्ज़ पर "ख़िलाफत' का नारा दिया था। अब कहा जा रहा है, हज़ारों नौजवान उससे जुड़ गए। कहां जुड़ गए? वह हर बार, हर वीडियो में, अपने गुण्डों-बदमाशों के गिरोह से जुड़ने की अपील करता था। कोई भी नहीं बता पाया है कि कितने कश्मीरी नौजवान हिजबुल नाम की अापराधिक गैंग से जुड़े। कोई हजारों, तो कोई 30-60 कह रहा है!
क्या पता, जो मुट्ठी भर असामाजिक तत्व, बंदूक उठा कर घूम रहे हैं - वे आदतन ही अपराधी हों?
कहते हैं वो हिजबुल का ‘कमांडर’ था! कितना दुर्भाग्य है। शैतानों का माफिया। उसका "कमांडर' कहकर उसे क्या दिखाया-सुनाया-पढ़ाया जा रहा है? काहे का कमांडर?

बड़ा दुर्भाग्य है। हमारी सेना को न केवल कश्मीरी नेता, बल्कि जो चाहे वो दिन-रात कोसते रहते हैं। हमारी सेना के कोर कमांडर के नाम हम किसी को याद नहीं! क्योंकि कभी बताए ही नहीं गए। आवश्यकता भी नहीं है। किन्तु मैं पूछता हूं -हमारी रक्षा पंक्ति के सर्वोच्च मैदानी जांबाजों को हम क्यों नहीं जानते? और उन्हें न जानें- कम से कम भाड़े के हत्यारों को "कमांडर' कहकर तो न नवाजें। आतंकी, वास्तव में पैसे देकर विस्फोट करवाते और पैसे लेकर दहशत फैलाते हैं। चाहे अल-कायदा हो या तालिबान या लश्कर
किन्तु हमने यह किस तरह की शब्दावली गढ़ ली है?
जैसे, "पोस्टर बॉय' मेमोरियल आयोजित हुआ। पाकिस्तान के अवैध कब्जे वाले कश्मीर में। कोई हाफिज़ सईद नामक आतंकी, किसी सैयद सलाउद्दीन से वहां मिला। तो प्रचारित-प्रसारित-प्रकाशित किया गया : "टेरर ज़ार' मिले! पिछली सदी से पहले रूस के सम्राट "ज़ार' कहलाते थे। क्या ये "सम्राट' हैं? और तो और, यह "कमांडर' रिपोर्ट करता था इस सलाउद्दीन को - वो "सुप्रीम कमांडर'!
हैरानगी है।
कोई तो रोके।
अब फिर एक पत्ता फेंक दिया जाता है। कि "होम-ग्रोन टेरर'। यानी, हमारी ही सरज़मीं पर पैदा, पट्टी पढ़े, पनपे आतंकी। इस कुप्रचार के विरूद्ध मैं लगातार लिख रहा हूं। "होम-ग्रोन टेरर' को सीधा कर के पढ़ेंगे तो पाएंगे "वो आतंक जो पाकिस्तान ने पैदा नहीं किया!'
जी, हां, "होम-ग्रोन’ यानी आतंकी हम हैं!
किन्तु, ऐसा होता तो नवाज़ शरीफ़, इस आतंकी के मारे जाने पर "गहन शोक' व्यक्त क्यों करते? किसी ‘अपने’ के जाने जैसा रूदन क्यों करते? अब पाकिस्तान इसको लेकर काला दिवस मनाएगा। कौन-सा कालादिवस? पाकिस्तान ने तो पूरी इंसानियत पर कालिख पोत रखी है।
जब 1990 में जेकेएलएफ का इश्फाक़ माजिद मारा गया - उसके बाद से पाकिस्तानी घुसपैठिये ही तो हावी हैं।
कारगिल क्या भूला जा सकता है? पीठ में छुरा घोंपने वाला घिनौना धक्का।
धक्का तो मोदी सरकार ने भी पीडीपी से गठबंधन कर खाया है। बल्कि हमें दिया है। और महबूबा मुफ़्ती तो घाटी में आतंक लौटाने की दोषी मुख्यमंत्री मानी जाएंगी। कहां गया उनका आक्रामक रुख? क्या मात्र टीवी के लिए था?
और, अंत में एक विशेष निवेदन।
हमारी सेना की भर्त्सना बंद करें। जान झोंक रखी है जवानों ने।
घाटी में सेना ने बड़ी भूलें की हैं। कुछ जवानों ने अपराध व अत्याचार किए - यह सच है। किन्तु अतीत में क्यों जी रहे हैं हम? और कश्मीर तो पूरा ही "पास्ट टेन्स' में है। इसीलिए प्रेजेंट, टेन्स है। और फ्यूचर इम्परफैक्ट।
रोकिए।
कश्मीर को कुछ दैत्य-दानव और मुट्ठीभर अलगाववादी नर्क नहीं बना पाएंगे।
कश्मीरी नौजवान, स्वयं को भारतीय मानें, असंभव है। किन्तु मानना ही होगा। मनवाना ही होगा। प्रेम से। विश्वास से।
हां, हिंसा पर उतरे उपद्रवियों का उपाय भिन्न होगा।
भारतीय दंड संहिता।
ताज-ए-रात-ए-हिन्द
जय हिन्द

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