वेतन आयोग भारतीय अर्थव्यवस्था पर कलंक

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भारत में बहुत से आयोग का गठन किसी क्षेत्र विशेष के सर्वांगीण विकास के लिए हुए। इन आयोगों के काम का आकलन सरकारें समय-समय पर अपने अनुसार करती आ रही हैं। इन्हीं आयोगों में एक वेतन आयोग है जो प्रत्येक 10 वर्षों में चर्चा का विषय बन जाता है। इस आयोग का गठन वैसे तो वेतन में फैली विसंगतियों को दूर करने के लिए हुआ था लेकिन आज यह आयोग उन विसंगतियों को और अधिक बढ़ा रहा है।

वर्तमान समय में जब भारत में औसतन प्रति व्यक्ति आय 7000-8000 रुपये/माह है तो आयोग द्वारा न्यूनतम वेतन 18000 रूपये/माह करने का क्या मतलब है जबकि उनको प्रति वर्ष 3% वेतनमान में वृद्धि और 5% महंगाई भत्ता मिल रहा है।
भारत की गरीब जनता के पैसे को उन चन्द लोगों में इस तरह बांटना कहां की बुद्धिमानी है। वेतन में वृद्धि से एक बार फिर गरीब लोगों को प्रचंड मंहगाई का सामना करना पड़ेगा। आने वाले दिनों में वेतन आयोग भारत को  विकट स्थिति की ओर ले जाने की  इशारा कर रही है।
हास्यास्पद बात यह है कि वेतन में इतनी बड़ी वृद्धि होने के बावजूद भारतीय रेल्वे के कर्मचारी हड़ताल पर जाने वाले हैं। यदि भारतीय अर्थव्यवस्था के परिप्रेक्ष्य में देखा जाए तो पता चलता है कि रेलवे जो 100 रूपये कमाई करती है तो उसमें से 96 रूपये खुद पर ही खर्चा करती है।
अब समय आ गया है कि सरकारों को वेतन आयोग की सिफारिशों और उसके गरीबों पर पड़ने वाले दुष्प्रभाव का आकलन करना चाहिए और आयोग के भविष्य के बारे में कुछ सोचना चाहिए। एक करोड़ लोगों के लिए हम 125 करोड़ लोगों के साथ अन्याय नहीं कर सकते।

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